इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में डायन की कल्पना घूमती हुई पूर्णिया पहुंच गई और उसने पांच लोगों की जान ले ली. वैसे यह ख़बरों की दुनिया में जितना अप्रत्याशित दिखता है, उतना है नहीं. इक्कीसवीं सदी के इंडिया में अठारहवीं सदी का एक हिंदुस्तान भी बसता है- ये हम सब जानते हैं. इस हिंदुस्तान में मजहबी संकीर्णता, जातिगत भेदभाव और तरह-तरह के अंधविश्वास अपनी पूरी ताक़त के साथ जीवित और सक्रिय हैं बल्कि विडंबना यह है कि खुद को आधुनिक लोकतंत्र से जोड़ने वाली हमारी राजनीतिक व्यवस्था भी अक्सर इनसे गठजोड़ करती, इनका इस्तेमाल करती और इनको बढ़ावा देती दिखाई पड़ती है.पूर्णिया का ज़िक्र छिड़ता है तो मेरी तरह के लेखक को रेणु याद आते हैं- परानपुर नाम का गांव याद आता है, दुलारीदाई नाम की नदी याद आती है, दंताराकस और सुन्नरीनैका की कथा याद आती है, परतीपुत्तर जित्तन याद आता है, इरावती, ताजमनी और मलारी याद आती है, लुत्तो भी याद आता है- यह वह ‘परती परिकथा’ है जो रेणु ने सत्तर साल पहले रची थी. इसके पहले उन्होंने ‘मैला आंचल’ लिखी थी. वह आज़ादी के बाद भारत के सपनों और यथार्थ के बीच चल रहे तीखे संघर्ष की कहानी थी. उस कहानी में डॉ प्रशांत था, जो मलेरिया का इलाज खोजने निकलता है और पाता है कि भारत की असली बीमारी का नाम गरीबी है, बावनदास थे, जो गांधी के चेले हैं और पाते हैं कि गांधी के नाम पर आज़ादी के बाद नई दुकानें खुल गई हैं, बालदेव थे, जो कांग्रेसी कार्यकर्ता हैं और मठ की दासी लक्ष्मी से अनकहे प्रेम में हैं, ममता थी जो डॉ प्रशांत की दोस्त है और प्रशांत की होने वाली प्रिया का मर्ज पहचान लेती है.