भारत में भाषाएं केवल संपर्क का जरिया नहीं हैं, ये क्षेत्रीय पहचान, राजनीतिक प्रभाव और सामाजिक एकीकरण में बड़ी ही जटिलता से बुनी हुई हैं. ये क्षेत्रीय पहचान का एक शक्तिशाली प्रतीक हैं. यही कारण है कि इन्हें राजनीतिक लामबंदी के लिए आसानी से हथियार बनाया जाता रहा है. भाषा का राजनीतिकरण अक्सर वास्तविक भाषाई चिंताओं को ढंक देता है, जिससे क्षेत्रवाद बढ़ता है और आंतरिक संघर्ष पैदा होते हैं. जिसके फलस्वरूप आखिर में राष्ट्रीय एकता कमजोर होती है.भारत में भाषा विवाद या संघर्ष के प्रमाण ऐतिहासिक तौर पर कम ही दिखाई देते हैं. फिर भी सत्ताओं के प्रश्रय तले मौजूद भाषाओं जैसे संस्कृत, पाली, तमिल आदि में वर्चस्व के संकेत मिलते रहे हैं. संभवतः यही कारण है कि इन भाषाओं को विकास करने का अधिक अवसर भी मिला. बावजूद इसके आमजन की जैविकी में क्षेत्रीय भाषाओं का महत्व बना रहा. आमजन की अस्मिता, पहचान और संस्कृति की वे सुदृढ़ वाहक बनी रहीं. कई अवसर ऐसे भी आए जब इन क्षेत्रीय भाषाओं ने स्थापित शास्त्रीय भाषाओं को पीछे छोड़ते हुए खुद को स्थापित किया. मध्यकाल में ‘अवधी’ और ‘ब्रज’ ऐसी ही भाषाएं थीं, जिन्होंने भारत के कई राज्यों की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए अपनी एक अलग पहचान बनाई. पूरे उत्तर भारत से लेकर महाराष्ट्र और दक्षिण भारत तक शायद ही कोई ऐसा विद्वान/संत रहा होगा जिसने इन भाषाओं का प्रयोग अपनी रचनाओं में न किया हो. संस्कृत के प्रकांड विद्वान तुलसीदास ने भी ‘रामचरितमानस’