Home Uncategorized तुगलक’ को आयोजक नहीं…तो क्या फिर अच्छे साहित्यिक सृजन की गुंजाइश बचेगी?

तुगलक’ को आयोजक नहीं…तो क्या फिर अच्छे साहित्यिक सृजन की गुंजाइश बचेगी?

पिछले दिनों थियेटर के आर्टिस्ट और कई वेब सीरीज़ में दमदार भूमिका निभाने वाले रिम्पी भाई से मुलाक़ात हुई. बातों ही बातों में ज़िक्र हुआ कि उनकी ख्वाहिश है कि आगरा में गिरीश कर्नाड के नाटक ‘तुगलक’ का मंचन किया जाए, लेकिन एक दो आयोजक से बात की पर वो तैयार नहीं हुए. मजाक-मजाक में उन्होंने सवाल पूछा क्या तुगलक रोड के नाम बदलने को लेकर विवाद हुआ उसका असर नाटक के मंचन पर भी पड़ रहा है? हालांकि तुगलक नाटक का मंचन समय-समय पर दिल्ली समेत कई शहरों में होता है. लेकिन मैं सोचने लगा कि कला, साहित्य और थियेटर से जुड़े लोगों में अगर ये भावना आएगी, तो क्या अच्छे साहित्यिक सृजन की गुंजाइश बचेगी?मेरे दिमाग में नगाड़ा बजाकर मुनादी करते मोहम्मद बिन तुगलक का वो अक्स उभरा, जिसमें वो सख़्ती के साथ बोलता है. 24 घंटे बाद मुझे दिल्ली में किसी घर की खुली खिड़की नहीं दिखनी चाहिए. किसी घर की चिमनी से धुंआ नहीं उठना चाहिए और किसी गली में कोई आवारा कुत्ता नहीं बचना चाहिए. सबको जल्द से जल्द दिल्ली से दौलताबाद में आबाद करो. साठ के दशक में गिरीश कर्नाड ने जब ये नाटक लिखा था, तब इसे तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की नीतियों पर तंज माना गया. अस्सी के दशक में जब इसका मंचन हुआ, तो उस वक्त के दर्शकों ने इंदिरा गांधी के फैसलों से इसे जोड़ कर देखापूरा नाटक देखने पर आपको अहसास होता कि अज़ीज नाम का धोखेबाज कभी ब्राह्मण बनकर, तो कभी ग्यासुद्दीन बनकर मोहम्मद बिन तुगलक को ठगता है लेकिन उसे सुल्तान ईनाम पर ईनाम देता है और शेख इमानुद्उदीन जैसे लोग जो सुल्तान के ग़लत फैसलों का विरोध करते हैं उनको मौत मिलती है…नाटक में मोहम्मद बिन तुगलक का आदर्शवाद कैसे शासन की जटिलताओं और उसके सनकी फैसलों के नीचे दबकर दम तोड़ देता इसकी झलक दिखाता है…लेकिन आज हम खुद ऐतिहासिक पूर्वाग्रहों के क़ैदी बन गए हैं..गिरीश कर्नाड का ये महान नाटक ऐसी परिस्थितियों में और ज्यादा प्रासंगिक हो गया है बस शर्त ये है कि तुगलक नाटक पर पढ़ें लिखे मूर्ख तुगलकी नाटक न करने पाएं.

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