19वीं सदी में यूरोप में अपने उद्भव के बाद भारतीय अकादमिक जगत में समाजशास्त्र ज्ञान की एक विधा के रूप में बहुत नया नहीं है, लेकिन कम समय में ही इसने भारतीय समाज में अपनी गंभीर उपयोगिता को सिद्ध किया है. भारत के तमाम बड़े केंद्रीय विश्विद्यालय चाहे बीएचयू, इलाहाबाद विश्विद्यालय, दिल्ली विश्विद्यालय या फिर हैदराबाद विश्विद्यालय आदि जगह इसने भारतीय सामाजिक विमर्श में व्यापक योगदान दिया, जिसके कारण भारतीय सामाजिक जटिलताओं को समझने में सहायता मिली.इन विमर्शों में योगदान देने वालों की लंबी लिस्ट है. उनमें से एक नाम जेएनयू के प्रोफेसर नंदू राम का भी रहा है, जिनका पिछले महीने निधन हो गया.एक अत्यंत ही सादगीपूर्ण जीवन जीने वाले व्यक्तित्व थे प्रोफेसर राम, लेकिन उनकी सादगी में छिपा था एक गंभीर अकादमिक चिंतन. अपने चिंतन के द्वारा उनका लगातार प्रयास रहा कि दलित विमर्श को समाजशास्त्र में केंद्रीय विषय वस्तु के रूप में स्थापित किया जाए. दलितों के सामाजिक बहिष्करण की तरह दलितों का विमर्श भी लंबे समय तक अकादमिक क्षेत्र से बाहर था