पुलिस हिरासत में मौतों की खबर भारत में जैसे बहुत आम है. लगभग रोज़ अख़बारों में जेल में या पुलिस की हिरासत में मारे जाने वालों की ख़बर छपती है. 26 जुलाई 2022 को लोकसभा में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने जानकारी दी कि 2020 से 2022 के बीच 4484 लोगों की मौत हिरासत में हुई थी. मानवाधिकार आयोग ने माना कि 2021-22 में जेलों में 2152 लोग मारे गए. इनमें 155 मौतें पुलिस हिरासत में हुई थीं. ऐसे आंकड़े लगातार बढ़ाए जा सकते हैं. लेकिन सवाल है, हमारे यहां हिरासत में इतनी मौतें क्यों होती हैं? क्या हमारी पुलिस व्यवस्था हिरासत में या जेल काट रहे क़ैदियों के साथ अमानवीय बरताव करती है? क्या वह क़ानूनों का ख़याल नहीं रखती? अब कॉमन कॉज का एक ताजा सर्वे आया है जो इस मामले में कई सच्चाइयों पर रोशनी डालता है.तो ये है हमारी कानून-व्यवस्था के पीछे काम कर रहा दिमाग. समझना मुश्किल नहीं है कि अक्सर क़ानून की खींची हुई रेखा को ये अधिकारी पार करने में भरोसा करते हैं. लेकिन क्यों? उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी एके जैन ने कहा कि हिरासत में मौत को लेकर जो आरोप हैं उनमें से कुछ सही भी हैं. समाज तय करता है कि उसे किस तरह का पुलिस बल मिले. पुलिस फोर्स में बड़ी संख्या में रिक्तियां हैं. पुलिस कर्मियों की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है. ये भी एक कारण है कि वो शॉटकर्ट रास्ता अपनाते हैं. तकनीकी की कमी भी एक बड़ी चुनौती रही है. साथ ही उन्होंने कहा कि न्यायिक सुधार की भी काफी जरूरत है जिससे की पुलिसकर्मियों से प्रेशर कम हो.